नई दिल्ली। WFI: खेलों की राजनीति जो ना कराए वो कम है। ताजा घटनाक्रम ये है कि भारतीय कुश्ती महासंघ की सदस्यता रद्द हो गई है। ये सोचकर भी अफसोस होता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारतीय कुश्ती संघ तय 45 दिन के भीतर चुनाव नहीं करा पाया। वो भी तब जबकि ये चुनाव लंबे समय से होने हैं। पहले 7 मई की तारीख तय हुई, फिर 11 जुलाई और फिर 12 अगस्त की। हर बार कुछ ना कुछ कानूनी अड़चन आई। ये अड़चन इसलिए आई क्योंकि जिन लोगों को नियम कानून के तहत अपना काम करना था, उन्होंने नहीं किया। 11 जुलाई को चुनाव इसलिए नहीं हो पाया था क्योंकि असम कुश्ती संघ अपनी सदस्यता को लेकर कोर्ट चला गया। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने चुनाव पर रोक लगा दी।
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लगातार कोर्ट में चला तारीखों का खेल
इसके बाद 12 अगस्त को WFI के चुनाव होने थे। इस बार पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने चुनाव से एक दिन पहले रोक लगा दी। कुछ मिलाकर मामला तारीख पर तारीख वाला चल रहा था। कभी किसी स्टेट एसोसिएशन की मान्यता का मुद्दा आ जाता है तो कभी किसी के नामांकन का। कुल मिलाकर चुनाव नहीं हो पाते. जिससे नाराज यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग ने भारतीय कुश्ती संघ की सदस्यता खत्म करने का कड़ा फैसला कर ही लिया। अब जानना लरूरी है कि इस फैसले के क्या मायने हैं?
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आखिकार क्यों रद्द की गई सदस्यता
खेल संघ पर सरकारों की दखलंदाजी न रहे इसलिए उसे स्वायत्त यानि ऑटोनॉमस रखा जाता है। जिनकी जवाबदेही उस खेल की अंतर्राष्ट्रीय संस्था के प्रति रहती है। कोई भी खेल संघ अपने देश की सरकार से भी कहीं ज्यादा जवाबदेह अपनी अंतर्राष्ट्रीय संस्था के लिए होता है। उसे ओलंपिक चार्टर का पालन करना होता है। आसान शब्दों में कहें तो जिस तरह आईओसी के बनाए नियम-कानून का पालन आईओए यानि इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन को करना होता है वैसे ही किसी खेल के एसोसिएशन को उसकी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का। यानि कुश्ती के मामले में बात करें तो WFI को यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग का। पूरी दुनिया में कुश्ती के नियम कानून तय करना उसके अधिकार क्षेत्र में है।
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सदस्यता रद्द होने पर पड़ेगा यह फर्क
सदस्यता रद्द होने का फर्क पहलवानों पर नहीं पड़ता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पहलवान अब अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले पाएंगे। बड़ा फर्क ये होता है कि जब तक WFI की सदस्यता बहाल नहीं होती तब तब भारतीय पहलवानों को भारत के तिरंगे की बजाए यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग के झंडे तले प्रतियोगिताओं में शामिल होना होगा। भावनात्मक तौर पर ये बड़ा झटका है क्योंकि तिरंगे को देखकर जोश-जुनून अलग ही आता है। अगले महीने की 23 तारीख से एशियन गेम्स होना है। एशियन गेम्स का आयोजन ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया करती है। 1982 के पहले एशियन गेम्स एशियन गेम्स फेडरेशन आयोजित करती थी, लेकिन 1982 से ये जिम्मा ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया करती है। लिहाजा एशियन गेम्स में भारतीय पहलवान तिरंगे के नीचे ही कुश्ती लड़ सकते हैं।
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कहां से आया चुनाव का मुद्दा?
अब मूल मुद्दे को भी जान लीजिए। WFI के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह का कार्यकाल खत्म हो रहा था। उनके कार्यकाल के खत्म होने से पहले-पहले चुनाव होने थे। ऐसा कहा जा रहा था कि बृजभूषण शरण सिंह अपने करीबियों को चुनाव जिताकर एसोसिएशन पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं। उन पर ये भी आरोप था कि वो अपने सगे संबंधियों को चुनाव लड़वाना चाह रहे हैं। चुनाव होते उससे पहले ही देश के नामी गिरामी पहलवानों ने उन पर सैक्सुअल हैरेसमेंट का आरोप लगाया। इसमें पॉक्सो जैसा गंभीर आरोप भी था। बृजभूषण शरण सिंह ने आरोप लगाया कि इन आरोपों के पीछे साजिश है। उनके विरोधी एसोसिएशन में आना चाहते हैं और पहलवानों के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं। किसी ने सोचा नहीं था कि बात इतनी ज्यादा बढ़ जाएगी। पहलवान अपनी मांगों को लेकर अड़े रहे, लड़ाई जंतर मंतर तक पहुंची।
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कुल मिलाकर भारतीय कुश्ती को हुआ नुकसान
विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पूनिया ने इस लड़ाई को पूरी शिद्दत से लड़ा। पुलिस, कोर्ट, सरकार तक भी बात पहुंची। पुलिसवालों के साथ पहलवानों की झड़प पूरी दुनिया ने देखी। इसके बाद पुलिस ने चार्जशीट भी दायर की। बाद में WFI के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह को पॉक्सो में तो राहत मिल गई लेकिन सैक्सुअल हैरेसमेंट का केस अब भी चल रहा है। धरने पर बैठे पहलवान अपने काम पर वापस लौट चुके हैं। लेकिन आरोप प्रत्यारोपों और बहस मुबाहिसों में मामला कहां पहुंच गया ये सभी के सामने हैं। कुल मिलाकर सबसे बड़ा नुकसान कुश्ती का हुआ। राहत की बात ये जरूर है कि एक बार जब सारी प्रक्रियाएं तय नियमों के तहत हो जाएंगी तो भारतीय कुश्ती संघ की सदस्यता फिर बहाल हो जाएगी।