जब पहली बार ओलंपिक में लहराया तिरंगा

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1948 की ओलंपिक हाॅकी में जीत ने दिया भारत को नया सितारा

नई दिल्ली। कहते हैं जब इंसान दूसरों के लिए लड़ता है तो लड़ाई लड़ता है लेकिन बात जब खुद की हो तो युद्ध लड़ता है। कुछ ऐसा ही अहसास आजादी की पहली वर्षगांठ से कुल 72 घंटे पहले भारतीय हाॅकी खिलाड़ियों के जेहन में भी चल रहा था। लंदन के वेंबले स्टेडियम में भारतीय टीम पहली बार तिरंगे की शान के लिए डटी हुई थी और सामने थी उसी ब्रिटेन की टीम, जिसने दशकों तक भारत पर अपना आधिपत्य कायम रखा। कहने को तो इससे पहले भारत तीन बार ओलंपिक का गोल्ड मेडल जीत चुका था लेकिन तीनों बार ही भारतीय टीम ब्रिटिश झंडे के साथ आई थी।

ऐसे में यह पहला मौका था, जब भारतीय ध्वज ओलंपिक स्टेडियम में लहरा सकता था। पूरे टूर्नामेंट में अजेय चल रही भारतीय टीम ने यहां भी ब्रिटिश खिलाड़ियों को कोई मौका नहीं दिया और भारतीय शेरों के सामने ब्रिटिश खिलाड़ी असहाय से दिख रहे थे। भारतीय टीम में शामिल एक सामान्य सी कद-काठी के खिलाड़ी ने अंग्रेजों को घुमाकर रख दिया और अपने शानदार प्रदर्शन के बूते भारत को 4-0 से शानदार जीत दिलाई। इस जीत के साथ ही पहली बार भारतीय तिरंगा ओलंपिक स्टेडियम में लहराता दिखाई दिया और ध्यानचंद के बाद भारत को हाॅकी का नया सितारा बलबीर सिंह सीनियर के रूप में मिला।

आज तक नहीं टूटा रिकाॅर्ड

मेजर ध्यानचंद के बाद के भारतीय हॉकी के युग में सबसे सफल खिलाड़ी के तौर पर बलबीर सिंह सीनियर को याद किया जाता है। लगातार तीन ओलंपिक खेलों (1948 के लंदन, 1952 के हेलसिंकी और 1956 के मेलबोर्न) में उनके जादुई प्रदर्शन ने ही भारत को हॉकी में सोने का तमगा दिलवाया। तीनों ओलंपिक्स में बलबीर सिंह ने कुल 8 मैच खेले और 22 गोल अपने खाते में दर्ज किए। 1952 के ओलंपिक हॉकी फाइनल में बनाए गए 5 गोल के रिकॉर्ड को तो आज तक कोई नहीं तोड़ पाया है। सही मायनों में बलबीर सिंह भारतीय हॉकी की विरासत हैं, शायद मेजर ध्यानचंद की तरह ही वे भी जिस सम्मान के हकदार हैं, वो उन्हें कभी मिला ही नहीं।

शायद खेल नहीं रहे थे, युद्ध लड़ रहे थे

बलबीर सीनियर ने एक इंटरव्यू में 2018 में कहा था, इस घटना के आज 70 साल हो गए लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे यह कल की बात हो। उन्होंने कहा था, तिरंगा धीरे-धीरे ऊपर जा रहा था। हमारा राष्ट्रगान बज रहा था। मेरे फ्रीडम फाइटर पिता के शब्द हमारा झंडा, हमारा देश, मेरे जेहन में गूंज रहे थे। तब मैं समझा था, इसका क्या मतलब होता है। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी मैदान में तिरंगे के साथ ऊपर जा रहा हूं। हालांकि टूर्नामेंट शुरू होने से पहले ही हमारी पूरी टीम इस बात को लेकर एकराय थी कि कुछ भी हो जाए लेकिन पहली बार ओलंपिक स्टेडियम में तिरंगा फहराने के इस मौके को हाथ से निकलने नहीं देंगे। शायद खिलाड़ी मैदान में खेल नहीं रहे थे, बल्कि अंगे्रजों से अपने देश की सालों तक हुई बर्बादी का बदला ले रहे थे।

संभावितों में भी नहीं था नाम

सबसे रोचक बात तो यह थी कि भारत को इंग्लैंड के खिलाफ ओलिंपिक गोल्ड दिलाने वाले बलबीर का नाम शुरू के 39 संभावितों की सूची में भी नहीं था। लेकिन जब देशभर में उनको शामिल करने की मांग उठी तो उन्हें टेलीग्राम करके बाद में नैशनल कैंप में ज्वाइन करने को कहा गया। कैंप में दूसरे दिन उनकी पसली टूट गई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। बाद में वह ठीक हुए और उनका नाम 20 सदस्यीय ओलिंपिक टीम में शामिल किया गया।

जिसने हथकड़ी लगवाई, उसी ने किया सजदा

यूं तो, बलबीर ने अपने करियर में दो और बार 1952 और 1956 में भी ओलिंपिक गोल्ड मेडल जीता था। लेकिन बलबीर के लिए 1948 का ओलिंपिक गोल्ड कुछ खास था। दरअसल, बंटवारे से पहले बलबीर को जबरन पुलिस फोर्स में भरती किया गया था, जब उन्होंने इससे इनकार किया तो एक पुलिस अधिकारी सर जाॅन बैनेट ने बलबीर को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया, जिसके बाद उन्हें हथकड़ी लगाकर ले जाया गया और जबरन पुलिस में काम करने को मजबूर किया गया। इसके बाद पंजाब पुलिस की तरफ से उन्हें हाॅकी भी जबरन ही खिलाई गई। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था, जिस जाॅन बैनेट ने बलबीर को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था, 1948 में वहीं बैनेट भारतीय टीम की अगुवाई करने लंदन एयरपोर्ट पहुंचा और बलबीर को गले लगाकर शुभकामनाएं भी दीं।

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